#रमैनी : ३८
यहि विधि कहां कहा नहि माना * मारग माहि पसारिनि ताना
राती दिवस मिलि जोरिन तागा *ओटत कातत भरम न भागा
भरमहि सब जग रहा समाई * भरम छोड़ी कतहू नहि जाई
परै न पूरि दिनहु दिन छीना * तहां जाय जहां अंग बिहूना
जो मत आदि अंत चलि आई * सो मत सब उन्ह प्रगट सुनाई
#साखी :
यह संदेशा फुरकै मानेहु, लीन्हेउ शीश चढ़ाय /
संतो संतोष सुख है , रहहु तो वृदय जुडाय // ३८ //
#शब्द_अर्थ :
मारग = कल्याणकारी का धर्म , विचार ! ताना = सूत ! वाणी = जाल ! ओटत कातत = रुई की धुनाई , सूत कातना ! भरम = अज्ञान ! परै न पूरि = संतुष्ट न हुवा ! अंग बिहूना = शुन्य , अकेला होना ! आदि अंता = सनातन पुरातन एक मात्र सत्य ! फूरकै = सत्य दर्शन बताना !
#प्रज्ञा_बोध :
धर्मात्मा कबीर कहते हैं मैं कामकाजी व्यक्ति कपड़े बुनने वाला बुनकर रोज कपास की धुनाई कताई कर धागा बनाना उससे बुनकर कपड़ा बनाना यही काम दिन रात करता रहा हूं ! पर जब थोड़ा काम से मुक्त होकर एकांत में गहन चिंतन मनन किया तो पता चला विदेशी यूरेशियन वैदिक ब्राह्मणधर्म ढकोसला है , अधर्म है , अमानवीय विचार है विकृती है ! जात वर्ण अस्पृश्यता विषमता को मानने वाला सनातन सत्य धर्म हो नही सकता क्यू की ये विषमता अस्पृश्यता वर्ण जाति वेवस्था तो विदेशी वैदिक ब्राह्मण निर्मित है ! ये यहां की पुरातन सनातन संस्कृति नही धर्म नही ! मूलभारतीय धर्म तो समता भाईचारा मानवता सदाचार शील सिखाता है जो आदि से चला आ रहा है सिंधु हिन्दू संस्कृति से भी पहले से चला आ रहा है !
कबीर साहेब कहते हैं मैं ने फिर अपना पुराना सनातन पुरातन समतावादी मानवतावादी समाजवादी मूलभारतीय हिन्दूधर्म जो लोग करीब करीब भूल चुके थे उसे लोगोंको बताना शुरू किया !
भाईयो हमारे मूलभारतीय हिन्दूधर्म में संतोष को बहुत महत्व है संतोष नहीं तो सुख नहीं ! लालच लोभ मोह माया के कारण ही मनुष्य मन में दुखी रहता है !
वैदिक ब्राह्मणधर्म लालच मोहमाया तिरस्कार विकृति से भरा है वो मानव अहितकारक है ! दुखदायक है उसे छोड़ो अपना पुराना सनातन पुरातन समतावादी मानवतावादी समाजवादी मूलभारतीय हिन्दूधर्म का पालन करो तो संतोष और सुख मिले !
No comments:
Post a Comment